भारत में बाल उत्पीड़न और यौन शोषण के बढ़ते मामलो के बीच ये लेख इस बात की समीक्षा करता है के किस प्रकार भारत में बाल यौन शोषण के रोकथाम के लिए अपराधिक न्याय प्रणाली और कानूनों का विकास मूल रूप से समाज में उपजी घटनाओं की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ है और इसके कारण हमारा क़ानूनी ढांचा समस्या के मूल संस्थागत कारणों को सम्बोधित किये बिना केवल अपराधी को सजा देने पर ज़्यादा ध्यान देता है| इस लेख में अति अपराधीकरण के दुष्परिणामों को रेखांकित कर एक सर्व व्यापी और पीड़ित के कल्याण को केंद्र में रखकर नीति के निर्माण की वकालत की गयी है | इस लेख के अंत में लेखिका ने पोक्सो के कानूनी प्रावधानो का विश्लेषण कर एक वैकल्पिक, सर्वसमावेशक, सामाजिक नीति और दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है जो हमे कानून की भूमिका के पुनर्मूल्यांकन करने पर विवश कर देता है |
भारत में बाल यौन शोषण के रोकथाम के लिए अपराधिक न्याय प्रणाली और कानूनों का विकास मूल रूप से समाज में उपजी घटनाओं की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ है | इस से सम्बंधित कानून बनाने की प्रक्रिया में विषय के हितधारकों और कानून विशेषज्ञों को सम्मिलित ही नहीं किया गया है या जहाँ किया गया वहां उनके परामर्श को केवल औपचारिकता पूरी करने के लिए लिया गया तथा उनके परामर्श को ठोस रूप से कानून के प्रावधानों में उचित स्थान नहीं दिया गया है | मसलन चाहे वो २०१२ में सहमति की उम्र को बढ़ाना हो या २०१८ में बच्चो के साथ बलात्कार की घटनाओ के लिए सजा-ए- मौत का प्रावधान करना हो | ये सभी निर्णय सरकार ने उस दौर में हुई घटनाओ के दौरान जनमानस में उपजे रोष के दबाव में आकर प्रतिक्रिया स्वरूप लिए और सरकार के ये कदम बाल यौन शोषण के मूल कारणों को उचित रूप से सम्बोधित नहीं करते है | स्पष्ट है , हमारे विधि के नीति निर्माता बाल यौन शोषण की सामाजिक और राजनैतिक सच्चाई को समझने से कोसों दूर है | इस से प्रश्न यह उठता है कि शोषण के रोकथाम में कानून की क्या भूमिका है ?
इस लेख में इस पर चर्चा की जाएगी कि किस प्रकार से भारत के विधिक तंत्र द्वारा उठाये गए कदम बाल यौन शोषण के रोकथाम में नाकारा साबित हुए | सर्वप्रथम तो सज़ा के प्रावधानों पर अत्यधिक निर्भरता ने बाल यौन शोषण के कारणों को सम्बोधित न कर उल्टा बच्चो पर और अधिक हानि के द्वारों को खोल दिया है | इस लेख में पीड़ित पर हमारी अपराधिक न्याय प्रणाली के उपचारात्मक प्रभाव का भी विश्लेषण किया जायेगा | इसके अतिरिक्त , अपराधीकरण से परे जाकर एक बेहद ही परिवर्तनकारी नीति “अनिवार्य रिपोर्टिंग” का विश्लेषण कर उसके सही माइनो में यौन शोषण के रोकथाम में प्रभाव का आकलन किया जायेगा | अंत में, कानून से इतर उन कदमों कि चर्चा की जाएगी जो कि पीड़ित के उपचार पर केंद्रित हो, न कि अत्यधिक अपराधीकरण को समाधान मानते हो|
प्रसंग
भारत में बाल यौन शोषण कि रोकथाम के लिए कानूनी ढांचा, किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, २०१५ और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण करने संबंधी अधिनियम, २०१२ (पोक्सो) के इर्द गिर्द घूमता है | किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, २०१५ , एक सामाजिक अधिनियम है जो कि पुनर्वासिक प्रवर्ति का एक अधिनियम है और इसकी व्याख्या एक “बेनेफिशियल लेजिस्लेशन” के तरह होनी चाहिए अर्थात इसकी उदार व्याख्या की जानी चाहिए | वही दूसरी और , पोक्सो एक्ट बाल यौन शोषण के अपराध के लिए सज़ा का प्रावधान करता है और इसकी व्याख्या एक आपराधिक विधान के तरह कठोर रूप से शब्दश की जानी चाहिए | इसके बावजूद दोनों ही अधिनियम “बेस्ट इंटरेस्ट ऑफ़ चाइल्ड“ सिद्धांत को आत्मसाध करते है और बालक के हित को सर्वोपरि रखते है |
बाल शोषण क्यों होता है ?
बाल शोषण के मूल कारणों में संरचनात्मक तनाव (जैसे आर्थिक स्थिति, रोज़गार कि स्थिति , शिक्षा , आदि ) और हिंसा सम्बन्धित पौराणिक मानदंड आदि को प्रबल कारक माने गया है |आसान शब्दों में, यदि कोई व्यक्ति बाल यौन शोषण में संलिप्त होता है तो व्यवस्था के कारण होने वाले तनाव को उसका एक कारक माना जा सकता है | हमारे समाज में भी बच्चों पर हिंसा को एक मौन सहमति प्राप्त है और हिंसा को समाज के द्वारा स्वीकृत, अनिवार्य और घोषित रूप से बच्चे के लालन-पालन का एक साधन माना जाता रहा है | इसका जीवंत उदाहरण हमारी लोकोक्तियाँ जैसे “लातो के भूत, बातो से नहीं मानते” आदि बच्चो के साथ मार-पीट को एक सामाजिक स्वीकार्यता दिलाते है | समाज कि ये सहमति शोषण आदि को औचित्यपूर्ण ठहराती है |
कानून की भूमिका क्या ?
वर्तमान में हमारी न्याय प्रणाली, समस्या के मूल कारण जो कि बाल यौन शोषण की समस्या को जन्म देती है , को नज़रअंदाज़ कर केवल मनमाने ढंग से , बिना तर्कों की समीक्षा किये , केवल शोषक के खिलाफ दंडात्मक प्रवर्ति से कानून को और कठोर बना कर दायित्वबोध से स्वयं को मुक्त कर देती है |
इस प्रकार का रवैया पीड़ित के हित्तों के लिए हानिकारक है| ज़्यादातर मामलों में अपराधी या तो बालक को जानता है या उस ही का कोई सगा सम्बन्धी होता है | इसके अतिरिक्त कौटुम्बिक व्यभिचार सम्बंधित शोषण (जब शोषक कोई घर में रहने वाला जैसे पिता ,भाई अदि ) में पीड़ित बच्चा इसी दुविधा में रहता है कि अपराधी उसका शोषक है या शुभचिंतक | अपने इस भरोसे को न टूट जाने देने के भय से वो यह व्यथा किसी और को कह भी नहीं पाता है | इस प्रकार के अपराध में शोषक और शोषित बालक के बीच विश्वास की डोर टूट जाती है | यदि इस प्रकार के प्रकरण को संवेदनशीलता के साथ नहीं संभाला जाता है तो बाल मन पर उसका कटु परिणाम बहुत समय तक रहता है क्युकी उस बाल मन के विश्वास को , उसके भरोसे को चोट पहुँचती है और इन परिस्थितियों में अपराधी को मौत की सजा देना किशोर के मन को लगे आघात को और गहरा कर देता है |
आपराधिक न्याय प्रणाली बनाम पीड़ित के घावों को भरना
हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की दंडात्मक नीति पीड़ित और उसकी पीड़ा से जयादा अपराधी को दंड देने पर ध्यान देती है | इस पूरी व्यवस्था में , अपराध हो जाने पर , बालक का स्थान केवल शिकायतकर्ता का रह जाता है और उसे बस मौन दर्शक किभाँती इस कोर्ट-कचहरी के खेल को देखते रहना होता है और इस प्रकार एक बालक को इस तंत्र के मकड़जाल में झौंक दिया जाता है | इस प्रकार पूरे तंत्र का समय और ऊर्जा, जो कि पीड़ित के दर्द को दूर कर, उसे मलहम लगाने में जानी थी वो पूरी ऊर्जा और समय इस तंत्र के बीच न्याय की राह को ढूंढने में व्यर्थ हो जाती है |और पीड़ित को अपनी पीड़ा के साथ अकेला छोड़ दिया जाता है| ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा तंत्र, जब बालक अभी शुरुआती झटको से गुज़र ही रहा होता है , स्थिति को समझने का प्रयास कर ही रहा होता है तब हमारी व्यवस्था बालक के दर्द को समझने की जगह उस पर और अधिक तनाव और बोझ लाद देती है | जिन मामलो में ट्रायल शुरू हो भी जाता है, वह मामले भी अपने तार्किक निष्कर्ष अर्थात अपराधी के अभियोजन से समाप्त नहीं होते | इस कानून व्यवस्था में बालक को न्याय की कोई गारंटी नहीं है | इस पूरी लम्बी और जटिल प्रक्रिया के अंत में एक पीड़ित कई मायने में निराश ही लौटता है, ऐसा प्रतीत होता है की कोई उनकी आवाज़ सुंनने वाला नहीं है, कोई उनके ज़ख़्मों पर मलहम लगाने वाला नहीं है | इस प्रकार कि व्यवस्था के बाद यह प्रश्न उठना लाज़मी है कि, क्या इस तरह के मामलों में पीड़ित को सबसे पहले हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली का दरवाज़ा खटखटना चाहिए ?
अनिवार्य रिपोर्टिंग
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण करने संबंधी अधिनियम, २०१२ (पोक्सो) की धारा १९ के अंतर्गत बाल यौन शोषण सम्बन्धी घटना यदि किसी भी सामान्य व्यक्ति, स्वास्थ्य सम्बन्धी पेशेवर, वकील इत्यादि के ध्यान में आती है तो उसकी रिपोर्ट दर्ज़ करवाना अनिवार्य होता है | इस तरह के मामलों को रिपोर्ट नहीं करने पर एक्ट सजा का प्रावधान किया गया है | यह बहुत ही दूरदर्शी और हितकारी प्रावधान है क्यूंकि ये इस बात को स्वीकार करता है की शोषण एक पावर गेम है और समाज कि इसकी रोकथाम में एक महत्वपूर्ण भूमिका है |
लेकिन यदि सूक्ष्म रूप से इस प्रावधान की समीक्षा करने से ये पता चलता है कि यह बाल हित में नहीं है और उन्हें उनकी “एजेंसी” से वंचित करता है | यह प्रावधान पीड़ित को निजी रूप से बयां की गयी पीड़ा को फिर से सार्वजनिक रूप से कोर्ट के समक्ष बार बार दोहराने और दर्द के वो मंज़र पुनः जीने पर मजबूर करती है | इस प्रकार की व्यवस्था पीड़ित को शोषण से आगे जीवन की और अग्रसर करने की बजाये शोषण को उसके जीवन का केंद्र बिंदु बना देती है | एक रिपोर्ट के हवाले से यह दावा किया गया है कि इस प्रकार के अनिवार्य प्रगटीकरण के कारण अभिभावकों का मानना है के यदि वे इन सब पीड़ादायक प्रक्रिया से पहले से परिचित होते तो वे इस प्रकार की लचर आपराधिक न्याय व्यवस्था के द्वार कभी खटखटाते ही नहीं | चूँकि इस प्रकार की रिपोर्टिंग बिना पीड़ित या उसके अभिभावक की सहमति या जानकारी के भी की जा सकती है वो चिकित्सक – जो की पीड़ित बालक अथवा बालिका का विश्वास पात्र होता है -उसे एक अनिश्चितता के भंवर में फंसा देती है क्युकी वो उस पीड़ित बालक का विश्वास उस अनिवार्य रिपोर्टिंग के बाद खो देगा |
बाल यौन शोषण की रोकथाम के लिए एक कानून से इतर परिकल्पना
अनिवार्य रिपोर्टिंग अपने आप में कोई समस्या का समाधान नहीं है | बाल यौन शोषण एक विशेष प्रकार के “पारिस्थितिकी तंत्र” में जन्म लेता है और उन परिस्थितिओ का आकलन कर उन्हें सम्बोधित किया जाना चाहिए | हमे इस तरह के वातावरण का निर्माण करना चाहिए जहां पीड़ित निर्भीक होकर, बिना परिणामो की चिंता किये, इस तरह के मामलो को उजागर कर सके | इस तरह के वातावरण का निर्माण करना चाहिए जो सभी प्रकार की सामाजिक, सांस्कृतिक , पारिवारिक तथा बाल सुरक्षा व्यवस्थाओ को ध्यान में रखकर आगे बढ़ें | बिना बाल्य सशक्तिकरण और जाग्रति के इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती कि पीड़ित रिपोर्टिंग के दुष्परिणामों का सामना कर पायेगा |
बाल कल्याण केंद्र और अन्य संस्थाओ में अनिवार्य रिपोर्टिंग की उपयोगिता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है लेकिन कानून के एक ही समाधान का सभी परिस्थितयो (वन साइज फिट्स आल ) में प्रयोग कतई सही नहीं ठहराया जा सकता है | इस समस्या के समाधान के लिए कई तथ्यों को ध्यान रखना होगा जैसे कि किन परिस्थितिओ में शोषण किया गया , पीड़ित का अपराधी के साथ सम्बन्ध क्या है आदि | बाल यौन शोषण में कई प्रकार के परिस्थितयो , हालातो , कारको आदि का मिश्रण होता है और किसी भी मामले की तुलना किसी अन्य मामले से नहीं की जा सकती है | हर मामले में सभी तथ्यों और परिस्थितिओ का विश्लेषण होना चाहिए और उस विश्लेषण का परिणाम केस पर दिखाई देना चाहिए |
अंत, संस्थागत शोषण में कानूनी हस्तक्षेप समस्या का निदान हो सकता है परन्तु यह सभी प्रकार के शोषण की समस्या का निदान नहीं कर सकता है | उदहारण के लिए : कौटुम्बिक शोषण के मामले में पारवारिक स्वाधिकार और बलपूवर्क हस्तक्षेप के बीच एक संतुलन बनाना जरूरी है| बच्चो के पास शोषण के साथ रह लेने के साधन हो सकते है चूँकि यह उनकी एक सच्चाई है, लेकिन कई बार उनके पास रिपोर्टिंग के बाद उत्पन हुई परिस्थितिओं से जूझने के संसाधनों की कमी हो सकती है | पारिवारिक हस्तक्षेप , जहां शोषक को पारिवारिक स्थापना में दोषी मानकर आगे से इस प्रकार के शोषण न करने की चेतावनी देकर छोड़ दिया जा सकता | इन सभी पारिवारिक हस्तक्षेप में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि पीड़ित को इस प्रकार के वातावरण से दूर रखा जाए |
यदि हम सही मायनो में बाल शोषण का अंत चाहते है तो वर्तमान कानूनों के सुदृढ़ कार्यान्वन के साथ साथ हमे अन्य तंत्र विकसित करने होंगे जैसे की बच्चो और अन्य पेशेवर लोगो को उचित यौन शिक्षा सही समय पर दिए जाने की व्यवस्था करनी होगी आदि | इस तरह की व्यवस्था को विकसित करने के साथ साथ बच्चो की मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल भी रखना होगा ताकि वो शोषण से आगे भी अपनी ज़िन्दगी जी सके| अंत में कानून के केंद्र में पीड़ित का कल्याण होना चाहिए न की दोषी को सज़ा | हमारी ऊर्जा का इस्तेमाल पीड़ित बालक के समग्र उपचार में होना चाहिए और यह प्रयास रहना चाहिए की पूरी प्रक्रिया के बाद पीड़ित बालक न्याय के भाव के साथ एक अच्छी ज़िन्दगी का यापन कर सके | हालाँकि पोक्सो नियमो में बच्चे के परामर्श का प्रावधान है लेकिन एक अत्यधिक दंडात्मक न्याय संरचना का पुनः विश्लेषण होना चाहिए और उसके पश्चात इस तरह की व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए जो बच्चो की ज़रूरतों के हिसाब से हो | शोषण एक सामाजिक समस्या है और कानून हमेशा हर सामाजिक समस्या का पहला समाधान नहीं हो सकता है | इस तरह के संवेदनशील मामलो में किसी भी तरह का कानून पीड़ित के अनुकूल होना चाहिए | इस तरह की दुर्भाग्य पूर्ण घटना को उसके जीवन का केंद्रीय बिंदु नहीं बना देना चाहिए बल्कि ये प्रयास किया जाना चाहिए की वो एक कोई छोटी दुर्घटना बन के रह जाये और वह अपने जीवन को उस घटना के इर्द गिर्द न देखता रहे|