सभी चमकती चीज़ सोना नहीं होती : सौंदर्य प्रसाधनों की चमक के पीछे बाल श्रम

ऑथर: निर्वाणी भावसार

अनुवादक: मनीष सोनी

श्रृंगार स्व अभिव्यक्ति और आज़ादी का साधन हो सकते है | कपडा उद्योग की तरह कॉस्मेटिक उद्योग की चकाचौंध के पीछे एक अँधियारा जगत है| भारत का अभ्रक बेल्ट, जो की बिहार और झारखण्ड की सीमा पर स्थित है वह सूर्यौदय के साथ ही जमीन सोने की तरह चमक उठती है | भारत में विश्व का ६० प्रतिशत  अभ्रक उत्पादित होता है और सौंदर्य प्रसाधन उद्योग उसका सबसे बड़ा ग्राहक है | अभ्रक का इस्तेमाल लिपस्टिक, ऑय शैडो , ब्लश आदि बनाने में होता है  और इस अभ्रक की खानो में ५ साल की उम्र जितने छोटे बच्चो को श्रमिकों की तरह इस्तेमाल किया जाता है | इस प्रकार नन्हे बच्चो जिन्हे इस बात का कोई अंदाजा नही है की उनके बचपन की कीमत पर बड़े बड़े उद्योग लाखो के व्यारे- न्यारे कर रहे है | यह संसाधन शाप का एक सटीक उदहारण है |

बाल शोषण की भूमि

सेंटर फॉर रिसर्च ऑन मल्टीनेशनल कॉर्पोरेशंस (सोमो) के अनुसार विश्व का एक चौथाई अभ्रक झारखण्ड और बिहार से आता है | लगभग २०, ००० बच्चे इन गैरकानूनी खानों में काम करते है | ये अभ्रक बेल्ट भारत के गरीबतम इलाको में शुमार है तथा बेरोज़गारी और अशिक्षा से ग्रसित है | भारतीय अर्थव्यवस्था की सांख्यिकी की पुस्तिका के अनुसार लगभग  ३३.७४ प्रतिशत बिहार की जनता और ३६.९६ प्रतिशत झारखण्ड की जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते है | गरीबी बाल श्रम की की एक मुख्य वजह है |

बिहार और झारखण्ड की ज़्यादातर खानें गैर कानूनी है | १९५० से कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त खानो की संख्या घटती जा रही है | वन संरक्षण अधिनियम, १९८० के पारित हो जाने के बाद केंद्रीय सरकार ने खनन लाइसेंस के नवीनीकरण की प्रक्रिया को एक तरह से समाप्त ही कर दिया है | इस कारण से गैर कानूनी खनन का बढ़ावा मिला है | भारतीय खान ब्यूरो के अनुसार  २०१४ में बिहार में केवल २ कानूनी खाने और झारखण्ड में एक भी कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त खाने नहीं थी

Statistical Profiles of Minerals 2013 14
Indian Bureau of Mines स्रोत: इंडियन ब्यूरो ऑफ़ माइन्स, “स्टेटिक मिनरल्स ऑफ़ मिनरल्स 2013-14”, अप्रैल 2014, पृष्ठ 82  http://bit.ly/1M8Y5Rt; International Trade Center (ITC), HS code 2525 group, संयुक्तराष्ट्रकेकॉमरेडआंकड़ोंकेआधारपर http://bit.ly/1UUWtA0व्यापारडेटा Infodrive केआधारपरकानूनीउत्पादनकेलिएसुधार।

उपरोक्त तालिका ऐसे क्षेत्रों में अवैध खनन की गंभीरता को दर्शाती है। चूंकि अधिकांश खदानें अवैध हैं, इसलिए भारी मशीनरी का उपयोग अक्सर नहीं किया जाता है। इससे मैनुअल श्रम पर निर्भरता बढ़ती है। मीका को भूमिगत सुरंगों का उपयोग करके खनन किया जाता है जो आकार में बहुत छोटे होते हैं और इन छोटी सुरंगों में खनन के लिए आकार के कारण बच्चों को परिपूर्ण माना जाता है। ये दोनों कारण खनन उद्योगों के लिए बाल श्रम को आकर्षक बनाते हैं।

बच्चों पर प्रभाव: स्वास्थ्य और शिक्षा

काम की खतरनाक स्थितियों के कारण मीका खनन बाल श्रम के सबसे खराब रूपों में से एक है। ऐसी छोटी खानों में काम करने का सबसे बड़ा जोखिम यह है कि वे किसी भी समय बच्चों को जिंदा दफन होने के खतरे में डाल सकते हैं। इस तरह की घटनाएं अक्सर बिना दर्ज़ हुए रफा दफा करदी जाती है  और बच्चों के परिवारों कोब्लड मनी”  दिए जाते हैं कि वे रिपोर्ट न करें और खनन जारी रखें। बच्चों को सिलिका धूल से भी खतरा रहता और  जिससे फेफड़ों की गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। वे खरोंच, त्वचा संक्रमण, हड्डियों को तोड़ने और हीट स्ट्रोक के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं। माइका खनन के स्वास्थ्य संबंधी खतरों के कारण, परिवार अपने परिवार के सदस्यों के चिकित्सा उपचार के लिए साहूकारों से ऋण लेने के लिए मजबूर हैं। यह उन्हें ऋण के जाल और बंधन में धकेल देता है – फिर भी उन्हें ऋण चुकाने के लिए इन खानों में काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ये साहूकार आमतौर पर व्यापारियों और अवैध अभ्रक खानों के प्रबंधक होते हैं, जिन्हें स्थानीय रूप से “अभ्रक माफिया” के रूप में जाना जाता है।

बच्चा अपने शिक्षा के अधिकार से वंचित भी रहता है और कुछ रुपये के अल्प वेतन के लिए खानों में काम करता है। नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स सर्वे ऑन एजुकेशन एंड वेलबिंग ऑफ चिल्ड्रेन इन झारखंड एंड बिहार के अनुसार, झारखंड और बिहार के ऐसे क्षेत्रों में ६  से १४  वर्ष के बीच के ४५४५  बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं क्योंकि वे अभ्रक खदानों में कार्यरत हैं। एक दुष्चक्र में, जब ये बच्चे वयस्कों में बदल जाते हैं, तो उन्हें शिक्षा की कमी के कारण नौकरी नहीं मिल पाती है और इन खानों में काम जारी रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।

कानूनी ढांचा

भारत में, १९८६ का बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम और १९५२ का खान अधिनियम (१९८३ में संशोधित) खनन में बाल श्रम को प्रतिबंधित करता है। १९८६ का बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम १४ वर्ष से कम आयु के बच्चों को भूमिगत खदानों में काम करने, अभ्रक को काटने / विभाजित करने और मुक्त सिलिका के संपर्क में आने वाली प्रक्रियाओं पर काम करने से रोकता है। जबकि, १९५२  (१९८३  में संशोधित) के खान अधिनियम में कहा गया है कि, अठारह वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को खदान से ऊपर के किसी भी हिस्से में उपस्थित होने की अनुमति नहीं दी जाएगी  और ये प्रतिबन्ध कोई भी ऑपरेशन  जो की किसी खनन कार्य से  प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ा है उस पर भी लागु होगा |”

अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर, भारत ने बाल श्रम के सबसे बुरे रूपों और न्यूनतम उम्र: i) C138 – न्यूनतम आयु सम्मेलन, 1973 और ii) C182 – बाल श्रम सम्मेलन, 1999 के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के संबंध में दो मुख्य सम्मेलनों की पुष्टि की है। C138 – न्यूनतम आयु कन्वेंशन, 1973 प्रदान करता है कि 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे द्वारा कोई खतरनाक काम नहीं किया जाना चाहिए (भारत के मामले में न्यूनतम निर्दिष्ट आयु 14 वर्ष है) और C182 – बाल श्रम सम्मेलन का सबसे खराब रूप, 1999 के अनुसार राज्यों को अपने देश में बाल श्रम के सबसे खराब रूप के खिलाफ तत्काल कार्रवाई करने के लिए बाध्य करता है ।

अभ्रक खनन उद्योग में बाल श्रम की रोकथाम और कॉर्पोरेट जिम्मेदारी

विभिन्न संगठनों, सरकार और मीडिया द्वारा किए गए कार्यों के कारण हाल के वर्षों में आपूर्ति श्रृंखलाओं में बाल श्रम के बारे में जागरूकता काफी बढ़ गई है। इससे व्यवसायों पर ऐसी समस्याओं को संबोधित करने और रोकने के लिए दबाव बढ़ा है। इन में से एक मह्त्वपूर्ण प्रयास संयुक्त राष्ट्र द्वारा संयुक्त राष्ट्र के व्यवस्याय और मानव अधिकारों (बच्चों के अधिकारों सहित) पर  पारित २०११ के मार्गदर्शक सिद्धांत हैं जो की इन अधिकारों का ध्यान रखनी के जिम्मेदारी व्यवसायी पर डालते है । यह आपूर्ति श्रृंखला में बाल श्रम जैसे मुद्दों को दूर करने के लिए कॉर्पोरेशंस को नीति बनाने के लिए बाध्य करता है।

कई बड़े कॉर्पोरेशंस ने इस  उद्योग में बाल श्रम की उपस्थिति को स्वीकार किया है और उसी के समाधान के लिए कदम उठाए हैं। एस्टी लॉडर, लोरियल, क्लेरिंस, कोटी, चैनल और बर्ट्स बीज़ जैसी कंपनियां पेरिस स्थित रेस्पोंसिबल मीका पहल (आरएमआई) में शामिल हो गई हैं। आरएमआई इन कंपनियों के साथ मिलकर प्रोसेसर और खदानों की आपूर्ति करने वाले अभ्रक की आपूर्ति श्रृंखला को ट्रेस करके बाल श्रम को कम करने का काम करती है। इसके अलावा, सदस्य कंपनियों ने अपनी आपूर्ति श्रृंखला के भीतर ऐसे मानक जो पर्यावरण, स्वास्थ्य, सुरक्षा, कानूनी और निष्पक्ष श्रम प्रथाओं को शामिल करते हैं और जिसमें बाल श्रम के उपयोग पर प्रतिबंध भी शामिल है को अपनाया है ।

जब ब्रिटेन स्थित लश कास्मेटिक को बाल श्रम के लिए पकड़ा गया, तो कंपनी ने अपनी उत्पादन की शैली में परिवर्तन लाते हुए कृत्रिम अभ्रक का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया । कई विशेषज्ञों द्वारा इस ‘कट एंड रन’ रणनीति की आलोचना की गई क्योंकि इससे ऐसे परिवारों को बेरोजगार होने से स्थिति बिगड़ती है। इस प्रकार की नीति यह स्वीकार नहीं करती है कि बड़े उद्योग समस्या का हिस्सा हैं और उद्योगों को समस्या से खुद को अलग करने के बजाय इसे सुलझाने के लिए सचेत प्रयास करना चाहिए।  इस तरह के प्रयास करने चाहिए जहाँ खरीदे जाने वाले कच्चे माल की ट्रेसबिलिटी और जवाबदेही में सुधार करके किया जा सके |

सरकार और स्वयं सेवी संस्थाओ (एनजीओ) द्वारा किए गए प्रयास: आगे की राह क्या ?

नैतिक और क्रूरता मुक्त उत्पादों के लिए उपभोक्ता मांगों के अलावा, सरकारें भी बदलाव के लिए प्रयास करने के लिए कंपनियों को प्रोत्साहन प्रदान कर रही हैं। सरकारें अब कंपनियों से पारदर्शिता बढ़ाने की मांग कर रही हैं। उदाहरण के लिए, नीदरलैंड में चाइल्ड लेबर ड्यू डिलिजेंस एक्ट पारित किया गया है (डच सीनेट द्वारा प्रवेश की तारीख अभी तय नहीं की गई है), जिसमें नीदरलैंड के बाहर पंजीकृत कंपनियों, डच एंड-यूजर्स को सामान या सेवाएं बेचना सहित कंपनियों की आवश्यकता होती है की वे इस बात का आकलन करे की बाहर से आये कोई भी सामान को बनाने में किसी भी प्रकार का बाल श्रम का प्रयोग तो नहीं हुआ है |  इस प्रावधान के  उल्लंघन करने पर भारी जुर्माना लग सकता है।  यह अधिनियम आपराधिक दायित्व के लिए भी प्रदान करता है।

भारत में, केंद्र ने स्थिति की गंभीरता का विश्लेषण करने के बाद, इन क्षेत्रों में बाल श्रम के प्रभावी निषेध में मदद करने के लिए बिहार के 23 जिलों और झारखंड के 7 जिलों में PENCIL योजना (प्रभावी बाल श्रम की प्रभावी प्रवर्तन के लिए मंच) को लागू किया। यह बाल श्रम के संबंध में ऑनलाइन शिकायतों को दर्ज करने के लिए एक मंच प्रदान करता है और अधिकारियों को रिपोर्ट किए गए मामलों की निगरानी के लिए जिला स्तर पर नियुक्त किया जाता है। बचाए गए बच्चों को उन केंद्रों में भेजा जाता है जहां वे शिक्षा या व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। क्षेत्रीय स्तर पर, 1980 में नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी द्वारा स्थापित एक गैर सरकारी संगठन बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) इस मुद्दे को संबोधित कर रहा है और बच्चों को बाल श्रम और तस्करी से बचा रहा है। इसने बाल मित्र ग्राम (BMG) या चाइल्ड फ्रेंडली विलेज (CFV), एक विकास मॉडल को अपनाया है, जहाँ बच्चे स्वयं अपने गाँव के बाल अधिकारों और समग्र विकास की वकालत करते हैं।

शिक्षा इस समस्या को जड़ों से ठीक कर सकती है। इसलिए सरकार को इन क्षेत्रों में शैक्षिक सुविधाओं की गुणवत्ता बढ़ानी चाहिए। स्कूल जाने के लिए बच्चों के लिए और अधिक प्रोत्साहन होना चाहिए। झारखंड / बिहार के अभ्रक खनन क्षेत्र में संबंधित परिवारों के लिए सतत वैकल्पिक आय-सृजन की संभावनाओं को भी विकसित किया जाना चाहिए, ताकि इन क्षेत्रों में बाल श्रम का मुकाबला किया जा सके। केवल निगमों, क्षेत्रीय संगठनों और सरकारों द्वारा ऐसे सक्रिय और सचेत कदमों से अभ्रक खनन में फंसे झारखंड और बिहार के बच्चों और उनके परिवारों के लिए सम्मान और सम्मान का जीवन सुनिश्चित किया जा सकता है।